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Wednesday, April 3, 2019

इतना क्यूं सोते हैं हम - प्रसून जोशी

इतना क्यूं सोते हैं हम,
इतना लम्बा, इतना गहरा, बेसुध क्यों सोते हैं हम ।

दबे पाँव काली रातें आती जाती हैं,
दबे पाँव क्या, कभी बेधड़क हो जाती हैं।
और बस करवट लेकर, सब खोते हैं हम।
इतना क्यूं सोते हैं हम।

नींद है या फिर नशा है कोई,
धीरे धीरे जिसकी आदत पड़ जाती है
झूठ की बारिश में सच की खामोश बांसुरी
एक झोंके की राह देखती सड़ जाती है,
बाद में क्यूं रोते हैं हम।
इतना क्यूं सोते हैं हम ।

खेत हमारा बीज हमारे,
हैरत क्या अब फसल खड़ी है,
काटनी होगी छांटनी होगी,
आज चुनौती बहुत बड़ी है,
कांटे क्यूं बोते हैं।
इतना क्यूं सोते हैं हम,

सबने खेला और सब हारे,
बड़ा अनोखा अजब खेल है
इंजन काला,डिब्बे काले,
बड़ी पुरानी ढींठ रेल है
इस रेल में क्यों होते हैं हम।
इतना क्यूं सोते हैं हम,

लोरी नहीं तमाचा देदो,
एक छोटी सी आशा देदो,
वरना फिर से सो जाएंगे
सपनों में फिर खो जाएंगे ।
चलो पाप धोते हैं हम,

इतना क्यूं सोते हैं हम ।

- प्रसून जोशी

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