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Monday, February 25, 2019

मुझे तो लगता है - जावेद अख्तर

मुझे तो लगता है जैसे किसी ने ये साज़िश  रची है
के लफ्ज़  और मानी में जो रिश्ता है
उसको जितना भी मुमकिन हो कमजोर कर दो
के हर लफ्ज़ बन जाए बेमानी आवाज
फिर सारी आवजोंको ऐसे घट मठ करो
ऐसे गूँदो की शोर कर दो
यह शोर एक ऐसा अँधेरा बुनेगा
की जिसमे भटक जाएंगे
अपने लफ्जों  से बिछड़े हुए
सारे गूंगे मानी
भटकते हुए रास्ता ढूंढ़ते
वक्त की खाई में गिर के मर जाएंगे
और फिर आके बाजार में
खोखले लफ्ज
बेबस गुलामों की मानिंद बिक जाएंगे
ये गुलाम अपने आकाओंके एक इशारे पे
इस तरह युरिश (हमला) करेंगे
के सारे खयालात
की सब इमारत
सारे जज्बात के शिशाघर
मुन्नतिम (demolish) होक रह जाएंगे
हर तरफ जहन की बस्तियों में
यही देखने को मिलेगा
के एक अफ़रातफ़री मची है
मुझे तो हे लगता है की किसी ने ये साज़िश रची है
मगर कोई है की जो कहता है मुझसे
के है आज भी
लफ्जोंमानी के परिस्तारो शहादा
जो मानी को यु बेज़बाँ
लफ्ज़ को ऐसे नीलाम
होने ना देंगे
अभी ऐसे दीवाने है
जो ख़यालात का
सारे जज्बात का
दिल की हर बात का
ऐसा अंजाम होने ना देंगे
अगर ऐसे कुछ लोग है
तो कहाँ है
वो दुनिया के जिस कोने में है
जहां है
उन्हें ये बता दो
के लफ्ज़ और मानी
बचाने की खातिर
जरा सी मोहलत बची है
मुझे तो ये लगता है जैसे किसी ने ये साज़िश रची है
- जावेद अख्तर 

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